रामायण की शुरुआत

रामायण की शुरुआत रामायण की शुरुआत

रामायण, जिसे वाल्मीकि रामायण भी कहा जाता है, की शुरुआत ऋषि वाल्मीकि द्वारा नारद से पूछे जाने से होती है कि क्या अभी भी कोई धर्मी व्यक्ति बचा है, जिस पर नारद जवाब देते हैं कि ऐसे व्यक्ति राम हैं। 

यहाँ रामायण की शुरुआत के बारे में कुछ और जानकारी दी गई है:

  • वाल्मीकि और नारद:

    ऋषि वाल्मीकि, जो राम के समकालीन थे, ने रामायण की रचना की। वाल्मीकि ने नारद से राम के बारे में सुना और फिर उन्होंने रामायण महाकाव्य की रचना की। 

  • रामायण की प्रेरणा:

    रामायण की रचना का प्रेरणास्रोत नारद द्वारा वाल्मीकि को राम की कथा सुनाना था। 

  • रामायण का महत्व:

    रामायण हिंदू धर्म के धार्मिक ग्रंथों में से एक है और भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

  • रामचरितमानस:

    तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण की मूल कहानी पर आधारित है, लेकिन इसकी भाषा संस्कृत के बजाय अवधी है. 

  • रामकथा का इतिहास:

    रामकथा का सबसे पहला बीज दशरथ जातक कथा में मिलता है, जो संभवतः ईसा से 400 साल पहले लिखी गई थी. 

  • रामायण का रचनाकाल:

    आधुनिक विद्वान रामायण का रचनाकाल 7वीं से 4वीं शताब्दी ईसा पूर्व मानते हैं. 

कवि वंदना

चौपाई :

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥

भावार्थ:-इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्री हरि का सुयश वर्णन किया है॥1॥

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥

भावार्थ:-मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है॥2॥ रामायण की शुरुआत

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥

भावार्थ:-जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥5॥

भावार्थ:-कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है॥5॥

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥

भावार्थ:-परन्तु हे कवियों! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है॥6॥

रामायण की शुरुआत

दोहा :

सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14 क॥

भावार्थ:-चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें॥14 (क)॥

सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14 ख॥

भावार्थ:-ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है, इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों! आप कृपा करें, जिससे मैं हरि यश का वर्णन कर सकूँ॥14 (ख)॥

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥14 ग॥

भावार्थ:-कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्र रूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुंदर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें॥14 (ग)॥