
॥ रामक्था के भगीरथ ॥
शिवपुराण में कहा गया है कि दयालु मनुष्य, अभिमानशून्य व्यक्ति, परोपकारी और जितेंद्रीय ये चार पवित्र स्तंभ हैं, जो इस पृथ्वी को धारण किए हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये चारों गुण मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र में समाहित होकर पृथ्वी की धारण शक्ति बन गए हैं।
राम के इन्हीं वैयक्तिक सद्गुणों का उच्चतम आदर्श समाज के सम्मुख प्रस्तुत करना वाल्मीकि रामायण का प्रमुख उद्देश्य है। राम एक आदर्श पुत्र, आदर्श पति, भ्राता और आदर्श राजा के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने एक वचन, एक पत्नी और एक बाण जैसे व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन कर समाज के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य किया। उनके चरित्र में अहिंसा, दया, अध्ययन, सुस्वभाव, इंद्रिय दमन और मनोनिग्रह जैसे षट्गुणों का समावेश है, जो आदर्श जीवन का मार्गदर्शन करते हैं। रामायण में वर्णित राम, लक्ष्मण और सीता केवल ईश्वर स्वरूप नहीं हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के आदर्श और प्रेरणा का प्रतीक भी हैं। उनकी पूजा और आराधना पूरे भरतखंड में होती है। राम परिवार के वैचारिक, भाषिक और क्रियात्मक पराक्रम का वर्णन करना ही वाल्मीकि रामायण का प्रधान उद्देश्य रहा है। इस कथा के माध्यम से समाज को उच्च आदर्श और मूल्यों की प्रेरणा दी गई है, जो आज भी प्रासंगिक है। ब्रह्माजी के मानस पुत्र नारदजी से एक बार वाल्मीकि ने प्रश्न पूछा था- ‘संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला दृढ़प्रतिज्ञ कौन है? ऐसा कौन सा महापुरुष है जो आचार-विचार एवं पराक्रम में आदर्श माना जा सकता है।’ इस पर नारद ने उत्तर दिया- ‘राम नाम से विख्यात, वे ही मन को वश में रखने वाले महाबलवान, कांतिमान, धैर्यवान और जितेंद्रिय हैं।’ इसी क्षण नारद ने अत्यंत भाव-विह्वल होकर संपूर्ण रामचरित्र वाल्मीकि के समक्ष प्रस्तुत किया।
रामचरित्र के महासागर में डूबे हुए वाल्मीकि, करुणा, प्रेम और भक्ति के सकारात्मक रसों से आप्लावित हो, तमसा नदी के तट पर स्नान करने पहुंचे। उनके हृदय में रामभक्ति का विशाल समुद्र लहरा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे संपूर्ण सृष्टि राममय हो गई हो। राम के दैविक गुण, मानवीय वृत्तियाँ जैसे दया, उदारता, अहिंसा, अक्रोध और परदुःखकातरता उनके मन-मस्तिष्क पर छाए हुए थे।
लेकिन इस शांत रस का सामना अचानक वीभत्स एवं हिंसा वृत्ति से हुआ। एक बहेलिए ने निरपराध मैथुनरत क्रौंच पक्षी को स्वार्थवश बाण से आहत कर दिया। यह दृश्य वाल्मीकि को गहराई से विचलित कर गया। उन्होंने अभी-अभी नारद से राम के पराक्रम, शौर्य और दयालुता के बारे में सुना था, जिन्होंने अपने शस्त्रों का प्रयोग केवल दुष्टों के नाश और सज्जनों के परित्राण के लिए किया। इसके विपरीत, यह कृत्य स्वार्थ और निर्दयता का प्रतीक था।
यह विपरीत स्थिति वाल्मीकि के हृदय को द्रवित कर गई। क्रौंच पक्षी की पीड़ा से एकाकार होकर, उनके मुँह से सहज ही ‘मा निषाद…’ वाला श्लोक निकल पड़ा। यह श्लोक उनकी सारी घनीभूत पीड़ा और करुणा को प्रकट करता है। रामायण के इस आरंभिक प्रसंग में वाल्मीकि के भीतर मानवीय संवेदनाओं और आदर्शों का मर्म गहराई से उजागर होता है। क्रौंच वध से आहत होकर वाल्मीकि विरोधाभासी भावनाओं के जाल में उलझे रहे। निषाद को दिए गए शाप के पश्चात वे कर्तव्य-अकर्तव्य और करणीय-अकरणीय के द्वंद्व में डूबे हुए थे। तभी स्वर्ग से ब्रह्मा का आगमन हुआ। सृष्टि के निर्माता और जगत के पितामह ब्रह्मा को वाल्मीकि ने अपने पश्चाताप और शाप की कथा सुनाई। इसी बीच उन्होंने अपने मुँह से निकले आदि श्लोक का भी उल्लेख किया। वाल्मीकि के पश्चाताप और उनके द्वारा रचित आदि श्लोक को सुनकर ब्रह्मा ने उन्हें सांत्वना दी और दुःखी न होने का परामर्श दिया। साथ ही उन्होंने आदेश दिया कि वे रामचरित्र का वही वर्णन करें जैसा उन्होंने नारद से सुना था।
ब्रह्मा ने वरदान दिया कि वाल्मीकि रामकथा के अज्ञात और गुप्त पहलुओं को भी जान पाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि जब तक सृष्टि में पर्वत और नदियाँ रहेंगी, तब तक रामकथा का गान होता रहेगा। वाल्मीकि, जिन्होंने अपने शोक को श्लोक में बदल दिया, आदिकवि के रूप में विख्यात हुए। संस्कृत के ‘विश्व’ जैसे शब्दकोश में भी ‘कवि’ का अर्थ ‘वाल्मीकि’ दिया गया है। उनकी रचना ‘रामायण’ को संस्कृत का पहला ‘आर्ष महाकाव्य’ माना गया है।
आर्ष महाकाव्य वह काव्य है जो इतिहास पर आधारित होता है और जिसमें सदाचार व आदर्शों का प्रतिपादन होता है। यह सद्गुणों का पोषक, धीरोदात्त चरित्रों से युक्त, गहन अर्थपूर्ण और श्रवणीय छंदों से सुसज्जित होता है। संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी है, इसलिए रामायण को सभी भारतीय भाषाओं का भी पहला महाकाव्य माना जाता है।
वाल्मीकि से पूर्व रामकथा मौखिक परंपरा में प्रचलित थी। ‘वाल्मीकि रामायण’ भी लंबे समय तक मौखिक रूप में रही। रामपुत्र लव-कुश ने इसे कंठस्थ किया और वर्षों तक इसका गान किया। राम की सभा में लव-कुश द्वारा रामायण सुनाने के दौरान राम ने अपने भाइयों से कहा, ‘ये जिस चरित्र और काव्य का गान कर रहे हैं, वह अपने शब्दालंकार, उत्तम गुण और सुंदर रीति के कारण अत्यंत प्रभावशाली है। अतः इसे ध्यानपूर्वक सुनो।’
अंततः वाल्मीकि ने इस मौखिक काव्य को लिपिबद्ध किया। रामायण की रचना राम के वनवास से अयोध्या लौटने के बाद हुई। इस महाकाव्य में 24,000 श्लोक, 500 सर्ग और 7 कांड हैं। हालाँकि, विद्वानों में इन 7 कांडों को लेकर मतभेद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर और युद्ध कांड (दूसरे से छठे) ही वाल्मीकि द्वारा रचित हैं, जबकि बाल और उत्तर कांड (पहला और सातवाँ) उनके द्वारा रचित नहीं हैं।
रामकथा को ‘पौलस्त्य वध’ और ‘दशानन वध’ के नाम से भी जाना जाता है। सारतः, रामायण रूपी भगीरथी को पृथ्वी पर लाने का कार्य वाल्मीकि ने किया।